टिहरी(अंकित तिवारी):- पुराने समय में गांव का जीवन भले ही साधनों की कमी से भरा होता था, लेकिन लोग आपसी मेल-मिलाप से खुशहाल रहते थे। जब किसी भी चीज़ की कमी होती, तो वह अपने लिए वैकल्पिक वस्तुओं का सहारा ढूंढ लेते थे। इसी संदर्भ में बात की जा रही है मेहंदी के पौधे की, जिसका उपयोग दुल्हनें और महिलाएं शादी-ब्याह के अवसरों पर अपने हाथों में मेहंदी लगाने के लिए करती थीं।
पर्यावरणविद् वृक्षमित्र डॉ. त्रिलोक चंद्र सोनी बताते हैं कि हमारे पूर्वज बहुत रचनात्मक थे। जब बाजारों में मेहंदी उपलब्ध नहीं होती थी, तब उन्होंने इस पौधे को खोज निकाला और इससे अपने हाथों में मेहंदी रचाने की परंपरा शुरू की। डॉ. सोनी ने बताया कि वे खुद भी इस पौधे का इस्तेमाल कर चुके हैं। इस पौधे की पत्तियों को शीलपट्टे में पीसकर चाय पत्ती या अनार के छिलकों से मिला दिया जाता था ताकि गहरा रंग आए। रात भर इसे हाथों पर लगाया जाता था और सुबह मेहंदी का सुंदर रंग हाथों पर खिल उठता था।
युवक-युवतियों, महिलाओं और दूल्हा-दुल्हन सभी इस पौधे की पत्तियों से बनी मेहंदी का उपयोग करते थे। यह परंपरा सदियों से चली आ रही थी, और इसके लिए मेहंदी के पत्तों को सुखाकर पाउडर बना लिया जाता था ताकि जब भी जरूरत हो, इसका इस्तेमाल किया जा सके। संगीता कठैत ने बताया कि इस पौधे से जुड़ी उनकी बचपन की यादें हैं, जब वे इसे हाथों पर लगाती थीं। वहीं यशुबाला उनियाल ने इस विलुप्त होते पौधे के संरक्षण की बात की।
इस मौके पर दीपाली ठाकुर, नीलम, सीमा असवाल, अनिता उनियाल, शोभा नेगी, रीना बर्तवाल, वीरसिंह राणा, गजेंद्र बेंजुला, दिनेश हटवाल सहित कई अन्य लोग उपस्थित थे।
यह पौधा आज भी हमें हमारे पुराने दिनों की याद दिलाता है, जब हम सरलता और स्वाभाविकता के साथ अपनी परंपराओं का पालन करते थे।
यह समाचार हमारे ग्रामीण जीवन की धरोहर और प्रकृति के प्रति उनके अनूठे समर्पण को संजोने का एक प्रयास है।
AJ Gramin YouTube चैनल में इस विषय से संबंधित वीडियो भी उपलब्ध है।
https://youtu.be/IHwm48tLTt8?si=6SItL-DJVwmG42IQ