उत्तराखंडसामाजिक

गौं मा ब्यो – बरात !

खाड़ी//चंबा//टिहरी

पंगत मा सरोला भात बाँटणा छन, अन्न की बर्बादी नि होंदी, प्रेम सि द्वि गफ़्फ़ा खये जांदन, द्वि छुईं लग जांदिन—-जुटठू नि खाणु बजारू का ब्यो मा!

*गौं का रीति रिवाज, खान – पान, बोली – भाषा का प्रति अब लोगु कु रुझान बदलन लगी गे।* गौं अब फिर से आकर्षण का केंद्र बणण लगि गेन । बंजारु की चार दिन की धकाधूम रंदी बस जबकि गौं पूरा एक पखवाड़ा तक ब्यो कारज की रंगत में रंगिया रंदन। *वु मिलणू जुलणु, गौं गळा की छुईं बात, गला भेटेणु, मिली जुलिक काम करण की रीत——भौत भली लगदी छ।* बजार की दौड़दी – भागदी जिंदगी से हम अब ऊब गयों। गौं मा आज भी वी मोह, ममता, माया, प्रेम भाव बन्नयों छ जबकि बजारू की शान – शौकत बस केवल दिखाओ छ हकीकत कुछ और ही छ। *हमु तैं गौं की सरलता, सादगी, स्वच्छता, प्रेम भाव का दगड़ी अपना रीति रिवाज, खान-पान, बोली भाषा, नातेदारी रिश्तेदारी निभौंण की पूरी पूरी कोशिश करीं चैंद।* तभी नई पीढ़ी भी हमारी देखा देखी कर ली।

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