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जब “साझे चूल्हे” में जली सामाजिक क्रांति की अलख


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-डाॅ.पवन कुदवान की कलम से———

अतीत स्वर्णिम हो तो इतिहास अपनी ओर खींच लेता है! समाजवाद के क्रान्तिकारी लेखक कुँवर प्रसून जी की कलम में ‘तीन कार्यकर्ताओं का सहजीवन’ लेख युगवाणी पत्रिका में पढ़ा! इसी उत्साही भाव से मैं सीधे पहुँच गया बूढ़ाकेदार के थाती गाँव में इतिहास का वर्तमान ढूढ़ने! स्वाधीन भारत में उत्तर प्रदेश राज्य के हिमालयी क्षेत्र भिलंगना घाटी में एक ऐसी सामाजिक क्रांति घटित हुई जिसे सामाजिक क्षेत्र में विश्व की पहली क्रांति माना जा सकता है!

यह वह दौर था, जब सामाजिक संकीर्णताओं की बुनियाद इतनी गहरी थी कि उससे बाहर निकलना असम्भव था! किंतु सम्भावना ढूँढ़ने वाले फिर भी उम्मीद खोज लेते हैं! इस सामाजिक क्रांति के जनक थाती के धर्मानंद नौटियाल जी, जिनकी सादगी के कारण उन्हें ‘संत’ भी कहा जाता है! गाँव में इनकी एक छोटी दुकान थी! जिसमें प्रायः सार्थक चर्चायें होती रहती थी! जिस कारण वहाँ पर तीन हुक्के रखे रहते थे! एक ब्राह्मणों के लिए दूसरा राजपूतों और तीसरा शिल्पकारों हेतु! शिल्पकार भरपुरू नगवाण ने अलग – अलग हुक्कों की क्या आवश्यकता है? पर प्रश्न किया तो धर्मानंद जी ने उत्तर दिया “कोई आवश्यकता नहीं”! कल से एक ही हुक्का रखूगाँ ! कभी कभार दुकान पर अखबार उस जमाने में आ जाता था, जिसे वे स्वयं जोर जोर से पढ़ते थे और अन्य लोग उन्हें सुनते थे! धर्मानंद जी ने अखबार पढ़ा और कहा देश अब आजाद है! अब न कोई छोटा और न कोई बड़ा सब समान है! पास बैठे भरपुरू नगवाण जी ने कहा कहने और करने में अंतर होता है! “यदि ऐसा है तो आप मुझे अपने चूल्हें पर खिला सकेंगे”! धर्मानंद जी ने कहा ” हाँ, खिला सकता हूँ” आप कल दोपहर हमारे घर आइए! भरपुरू नगवाण में सामाजिक चेतना एवं साहस तो था ही, वे उनके घर पर आ गए ! उन्हें धर्मानंद जी सीधे अपनी रसोई में ले गए और सम्मान के साथ खाना खिलाया! उनकी पत्नी सतेश्वरी देवी माइके से गाँधी विचारधारा की थी! थोड़ी असहजता के साथ सम्मान से रसोई में खाना खिलाया! भले ठीक उसी समय गाँव की एक महिला पर देवता भी आया किंतु मानवता के पुजारियों को तो सामाजिक क्रांति लानी थी जिस कारण उन्हें देवताओं पर भी भरोसा नहीं था! उनका अपना अडिग मार्ग था! इन दो प्रश्नों के उत्तर से जन्म हुआ एक सामाजिक क्रान्ति का! वैचारिक मित्रता सामाजिक मित्रता में बदल गई किंतु दोनों को ही समाज ने प्रताड़ित किया! इस कड़ी में सयाणा परिवार के थोकदार बहादुर सिंह राणा जी भी सामाजिक अस्पृश्यता निवारण हेतु जुड़ गए! तीनों ही युवा गाँधीवादी एवं सर्वोदयी विचारधारा के सच्चे वाहक थे! जिन्होंने इतनी संकीर्णता में अपमान तो झेला किंतु विचारधारा का त्याग नहीं किया! आपसी विचारों की आत्मीयता ने उन्हें साझा परिवार (साम्ययोगी परिवार) में ला दिया! सरोला ब्राह्मण धर्मानंद, थोकदार एवं मालगुजार बहादुर सिंह राणा, शिल्पकार भरपुरू नगवाण, तीनों लोगों का परिवार अब एक चूल्हे की रोटी खाने लगा! जिसमें कोई जाति भेद नहीं था! बहादुर सिंह और धर्मानंद जी थाती गाँव के और भरपुरू नगवाण नदी पार रक्षिया गाँव के थे! इन्होंने साझा प्रयास से एक साझा तीन मंजिला मकान बनवाया जो आज भी मौजूद है! गाँव के 80 वर्षीय पूरण दास जी ने बताया कि इस तीन मंजिले मकान के लिए पत्थर आदि मैंने भी लाये थे! इस भवन में एक गौशाला भी थी! जिसके लिए हम घास काटकर लाते थे! मैंने तीनों के साझे पारिवारिक प्रेम को देखा है!

यह एक साझे घर के साथ एक उद्योगशाला भी थी जिसमें आत्मनिर्भरता आधारित कामों को सिखाया जाता था! रसोई घर, पुस्तकालय, गाँधी शांति कक्ष, कताई-बुनाई केन्द्र, गोशाला आदि! इस साझे मकान में तीनों परिवारों का खाना एक साथ बनता था! जब खेतीबाड़ी का काम थाती में होता तो नगवाण का परिवार इन दोनों परिवारों के साथ मिलकर काम करता और जब रक्षिया में होता तब दोनों परिवार के लोग वहाँ जाते! वहीं खाना खाते! काम रक्षिया में हो या थाती में लेकिन खाना एक चूल्हें में ही खाया जाता था! कितनी बड़ी बात थी यह! साझे परिवार में साथ रहे उस समय के छोटे-छोटे बच्चे जय प्रकाश राणा, धीरेन्द्र नौटियाल एवं किशोरी लाल नगवाण जी से यह सत्यता पूछी तो तीनों की बातों में इस ऐतिहासिकता को लेकर एक ही स्वर था! सेवानिवृत्त शिक्षक किशोरी लाल ने कहा “धर्मानंद एवं बहादुर सिंह राणा जी के परिवारों को बहुत सामाजिक अपमान झेलना पड़ा, मेरे पिताजी ने भी झेला किंतु उन्हें यह विरासतीय आदत थी”!

इन तीनों सामाजिक क्रांति के महानायकों को देवदूत कहने में भी संकोच होता है क्योंकि अस्पृश्यता निवारण पर दैविक शक्तियां भी मौन रही है देवभूमि में अर्थात इन्हें मानव धर्म के दूत कहना न्याय संगत होगा जो सामाजिक न्याय, सौहार्द समरसता चाहते थे! इस हेतु इन्होंने 26 जनवरी, 1950 को बूढ़ा केदार में एक सहभोज कार्यक्रम किया! जिसमें दलितों ने भी सहभाग किया! किंतु कट्टर रूढ़िवादियों ने धर्मानंद नौटियाल, बहादुर सिंह राणा सहित कुछ लोगों पर चंद्रायण (सामाजिक बहिष्कार) कर दिया! मानवता के पुजारियों के हौंसलों में कहाँ कमी आने वाली थी! गाँव में घूमघूम कर गाँधी जी के भजनों के साथ प्रातःकाल उठकर लोकमानस में समताभाव जागृत करने हेतु गाँव में प्रभात फ़ेरी लगाते थे! रक्षिया गाँव में दलित बच्चों के उत्थान हेतु रात्रि पाठशाला चलायी ! धर्मानंद जी बच्चों को पढ़ाते थे एवं उन्हीं के हाथों से बना भोजन आदि भी करते थे! यह सब देखकर क्षेत्र में जन आक्रोश था जिस कारण कोई अप्रिय घटना “संत” जी के साथ न हो बहादुर सिंह राणा एवं भरपुरू नगवाण भी इनके साथ रहते थे! इन्होंने दलितों के नाम भी सुधारे मंगतू को मंगलानंद, मूस्सू को मंसानंद, अषाडू को असलानंद आदि नामों की साथर्कता दी! स्वयं सरोला ब्राह्मण होने पर भी नाम के साथ अपनी जाति “नौटियाल” नहीं लगाते थे! अस्पृश्यता निवारण के साथ -साथ आत्मनिर्भरता आधारित रोजगार पर बल दिया!

सामाजिक कट्टरता चाहे कितनी हो देर सबेर जीत मानवता की ही होती है! सहनशक्ति मजबूत होनी चाहिए! पुनर्जागरण के जन्मदाता राजा राम मोहन राय को भी घर परिवार का अपयश झेलना पड़ा लेकिन सती प्रथा में कितनी जिंदगियां बचायी! इतिहास हमेशा अपनी गोद में उन्हें स्थान देता जो दुनिया में अपना मौलिक मार्ग बनाते हैं! संत धर्मानंद के पिताजी हरिकृष्ण नौटियाल रियासतकाल में पटवारी थे! बहादुर सिंह राणा के पिता जी गाँव के सयाणे थे! सामाजिकता में बदलाव के लिए उन्हें अपने परिवारों का स्वाभिमान न्यौछावर करना पड़ा! ऐसा नहीं कि उनके कार्यों का मूल्याकंन नहीं हुआ! 1955 में उन्होंने ग्राम प्रधान का चुनाव लड़ा, कुछ प्रत्याशी उनके सम्मान में स्वयं ही बैठ गए! एक उम्मीदवार लड़ा जो चुनाव हार गया ! इसी भाँति 1981-95 बहादुर सिंह जी प्रधान रहे! उन्होंने निर्मल वर्ग आवास में हरिजनों के घास फूस वाले मकानों को पक्का बनवा दिया था! भरपुरू नगवाण भी रक्षिया के ग्राम प्रधान 1955 – 65 तक रहे!

मैंने जब धर्मानंद जी के बेटे धीरेन्द्र प्रताप नौटियाल एवं बहादुर सिंह राणा जी के पुत्र जय प्रकाश राणा से उनके घर पर बातचीत की तो उन्होंने कहा हमें गर्व है कि हमारे पिताओं ने सामाजिकता की ऐसी क्रांति प्रज्वालित की जिसका अपना इतिहास है! भले हमें अपने समाज का सामाजिक अपयश झेलना पड़ा किंतु आज सबको गौरव होता है! हमें अपने भाई बंध, रिश्तेदार अपने घर में नहीं घूसने देते कहते तुम डोमिगी (अछूत हो गए हो), धीरेन्द्र नौटियाल जी ने अपने संस्मरण में बताया कि मेरी फूफू की शादी में कोई गाँव वाले खाना खाने नहीं आये! किंतु इन सब बातों से विचारों की सुदृढ़ता में कमी नहीं आयी! वक्त बीतता गया बातें सामाऱ्य होती गयी! एक दिन पिताजी ने रक्षिया गाँव से अन्य परिवार से पुष्पा दीदी को बुलाकर लाये और मेरी माँ को कहा “तुम खाना नहीं बनाओगी, रसोई में पुष्पा खाना बनायेगी”! मैं रक्षिया जाता रहता था और झूपला बड़ा जी से दूध पीने के लिए मांगता रहता था! सेवा दास ग्राम घोनगढ़ के यहाँ चचेरू और दही खाने का आनंद ही कुछ और था! जय प्रकाश राणा जी ने भी इनके घर खायी खीर को स्मृरित करते हुए कहा कि हम आज भी अपनी पैतृक ऐतिहासिकता में है! नगवाण बड़ा जी के बेटे किशोरी लाल जी के यहाँ जैसे ही हम जाते चाय पहले ही बन जाती है! हमारे समय तक यह सामाजिक धरोहर हमारे साथ है! आगे बच्चों की जैसी इच्छा होगी! संत जी का संस्मरण सुनाते हुए उन्होंने बताया पिताजी कभी भी अपने आंगन में चैती गीत नहीं लगवाते थे! ऐसा न करने के लिए औजियों को कहते थे! धीरेन्द्र जी ने बताया मैं ग्राम प्रधान के लिए उठा मेरे साथ छ् प्रत्याशी और भी थे पिताजी ने वोट ही नहीं डाला! कहा मेरे लिए अऱ्य छ् प्रत्याशी भी समान है!

गाँधी जी का ग्राम स्वराज का स्वच्छता दर्शन एवं सर्वोदयी भू- आंदोलन के अंतर्गत भूमिहीनों को वन विभाग के सहयोग से जमीन दिलवायी! बूढ़ा केदार में दलितों को मंदिर प्रवेश करवाना एक बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि थी! जिसमें समाजवादी ‘पर्यावरण के गाँधी’ सुंदर लाल बहुगुणा जी उनकी धर्मपत्नी विमला बहुगुणा, परिपूर्णानंद सेमवाल, धर्मानंद, बहादुर सिहं, आदि पर भीड़ द्वारा विरोध स्वरूप जूते तक फेंके गए! दलितों को मंदिर के भीतर प्रवेश करवा दिया गया था! मंदिर के अंदर कोई अप्रिय घटना न घटे सुंदर लाल बहुगुणा जी ने मंदिर की चौखट पर दोनों हाथ ऐसे टिकाये की कोई भी अंदर नहीं जा सका! यदि रूढ़ीवादी सोच मंदिर में घुस जाती तो दलितों पर अंदर उग्र प्रहार होता! धर्मानंद जी ने अभिव्यक्त किया कि “मुझे उस दिन मालूम पड़ा की बहुगुणा जी शारीरिक रूप से भी कितने मजबूत है”! दलितों का मंदिर प्रवेश करवाने के बाद स्वयं धर्मानंद ने उपद्रवियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया जिसकी पैरवी वकील विरेन्द्र सकलानी ने की! बाद में समझौता हो गया था!

छूआछूत के खिलाफ इतना आत्मीय संघर्ष देश दुनिया में कहीं और हुआ हो ऐसा नहीं लगता! वह भी एक ब्राह्मण एवं थोकदार ठाकुर द्वारा जिन्होंने भले अपने नाते रिश्तेदारों में अपना मान सम्मान खो दिया किंतु अपना एक ऐसा सामाजिक इतिहास लिख दिया! जब भी अस्पृश्यता निवारण की बात होगी यह सामाजिक क्रांति की ऐतिहासिकता जीवंत रहेगी! जिस क्षेत्र में तीन दिन तक मुर्दा नदी तट पर न जलाने दिया गया! जहाँ पुल से आर – पार आने जाने में दलितों को तब तक पुल पर नहीं चलना था जब तक सर्वण पुल पार न कर ले! उस माटी में दलित परिवार के साथ साझा चूल्हा होना दुनिया की एक अनोखी घटना है!

आइए उपरोक्त बातों को आज के सामाजिक संदर्भ में तुलना करते हैं कहाँ तक न्याय संगत लगती है? आज के पढ़े लिखे समाज में ऐसी सामाजिक आत्मीयता नहीं है! अलग-अलग जातियों का साझा चूल्हा तो कल्पना मात्र है! बहुत से उच्च शिक्षित विद्वानों को आज भी पानी पिलाने में संकोच होता है! आज जहाँ आटा चक्की छूने मात्र से दलित की गर्दन काट दी जाती! कुर्सी पर बैठकर खाने पर जान गवानी पड़ती है! ऐसे में प्रश्न उठते हैं इतनी गौरवमयी देवभूमि के साझे चूल्हे का ज्ञान समाज की बीमार सोच को कौन देगा? जहाँ स्वयं कुछ ज्ञानी लोग ही स्कूलों में बच्चों की सामाजिक विषमता में कतारें लगवाते हैं! उन्हें जरूर धर्मानंद जी की पाठशाला का पाठ कौन पढ़ायेगा? जिस राजनीति के झूठे नेता समाजवादी दर्शन दिखाकर किसी दलित के यहाँ भोजन खाने का नाटक करते हैं उन्हें इन तीन मानवता के पुजारियों के साझे जीवन की सच्चाई बिना कैमरे के कौन बतायेगा? एक दिन में कैमरे के सम्मुक नाटक करने से सामाजिक समरसता नहीं आती है! काश! ऐसी सच्ची सामाजिक क्रांतियां होती रहती तो सम्भव था जाति बंधन का भूत खत्म हो चुका होता! ऐसे में कोई जरूरत न होती संवैधानिक प्रावधानों की!

गाँधीवादी एवं सर्वोदयी विचार धारा से प्रभावित तीनों युवकों की सामाजिक साझे चूल्हे की प्रयोगशाला बारह वर्षों तक चली! भरपुरू नगवाण का साथ छ वर्षों तक रहा और बहादुर सिंह राणा का सहजीवन बारह वर्षों तक! जैसे एक संयुक्त परिवार का बंटवारा होता उसी भाँति विभिन्न सामाजिकता के तीनों भाई अलग हुए किंतु उनके विचार आज भी समाज में जिंदा है! ऐसी हिम्मत और साहस उनमें ही होती है जिनका जन्म कुछ अलग करने हेतु होता है! बातचीत के बीच मैंने आखिर में धीरेन्द्र जी एवं जय प्रकाश जी से प्रश्न पूछा समाज में कभी कभार सामाजिक अपयश वाली घटनाएं समाज की चिंता बड़ा देती है! क्या ऐसा इसलिए होता है कि इन्हें आरक्षण मिलता है? उन्होंने सीधे उत्तर दिया ! क्या समाज इन लोगों को दारू (शराब) बेचते ही देखना चाहता है? यदि आरक्षण से आज जाति भेद होता है तो क्यों पिछड़ा क्षेत्र घोषित करने हेतु आरक्षण प्राप्त करना चाहते है? अच्छा तो है आज हम रक्षिया गाँव में आर्थिक समृद्धि देखते है! सामाजिकता में आज के समाज सुधारकों, चिंतकों एवं राजनीति के वाहकों को यदि समाज में सच्चा सौहार्द लाना है तो जरूर बूढ़ाकेदार की भूमि में जाइए! जानिए वहाँ का सामाजिक इतिहास! शोधकत्ताओं से प्रार्थना है ऐसे विषयों पर शोधकर पुस्तक लिखे जिससे समाज में सार्थक संदेश जायेगा! नई शिक्षा नीति 2020 में देश के पाठयक्रम में “साझे चूल्हे की सामाजिकता” के नाम से विषय वस्तु प्रस्तुत होनी चाहिए! इस विषय पर पर्याप्त सामग्री के दस्तावेज आज भी थाती गाँव में मौजूद है! कोई भी समाजशास्त्री, शोधकर्त्ता इन पर पुस्तक लिखकर देश, समाज को लाभान्वित कर सकता है! आज समाज इनकी ऐतिहासिक सामाजिकता का भले अनुकरण करें अथवा नहीं किंतु इनका इतिहास जरूर देश समाज में उल्लेखित किया एवं पढ़ाया जाना चाहिए! साझे चूल्हे की ही सार्थकता में गाँधीवादी सर्वोदयी विचारक स्व.बिहारी लाल जी की संस्था “लोक जीवन विकास भारती” का बुनियादी दर्शन ने दुनिया को प्रभावित कर समाज को लाभान्वित किया है!

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