जगदीश ग्रामीण। एजे ग्रामीण
यह राजधानी के एक दूरस्थ गांव की 50 साल पुरानी सच्ची प्रेम कहानी है। आज वो दूल्हा 75 वर्ष का बुजुर्ग हो गया है। वह जमाना मोबाइल का नहीं था, चिट्ठी पत्री लिखी जा सकती थी लेकिन स्कूल बहुत दूर था और लड़कियों को अधिकांशत: पढ़ाने का कष्ट अभिभावक नहीं उठाते थे।
पिता के घर से डोली में पति के घर की ओर तो दुल्हन निकल पड़ी लेकिन जिसके साथ सात जन्मों तक का साथ निभाने के लिए सात फेरे लिए, जिसके नाम की हाथों में मेहंदी रचाई , उसके घर का अन्न तो दूर की बात —जल तक नहीं पिया।
दुल्हन डोली से उतरते ही उल्टे पांव अपने गांव की ओर चल पड़ी। रात दुल्हन ने एक पेड़ पर जागते हुए बिताई। प्रातः काल सूर्योदय के साथ ही उसने अपने प्रेमी के आंगन में दस्तक़ दी। दोनों प्रेमी आलिंगनबद्ध हो दहाड़ मार- मार कर रोने लगे।
यह समाचार गांव में पल भर में जेठ की दुपहरी की जंगल की आग की तरह फैल गया। दुल्हन अभी 16 बरस की थी। उस जमाने में शादी विवाह की आयु 13 बरस से 16 के बीच ही थी। आप सोच रहे होंगे कि यदि दुल्हन को प्रेम विवाह ही करना था तो फिर पिता का विवाह पर इतना खर्चा क्यों कराया, पिता के मान – सम्मान को चोट क्यों पहुंचाई, धन और समय की बर्बादी क्यों कराई।
आज की तरह का वक्त नहीं था कि दुल्हन ब्यूटी पार्लर जाती और बारात दरवाजे पर खड़ी सूरा के समंदर में तैरते हुए नाचती गाती रहती और ब्यूटी पार्लर से दुल्हन स्कार्पियो में प्रेमी संग फुर्र हो जाती और 2 घंटे बाद फोन करके अपने जाने की सूचना देती।
वो जमाना ऐसा था जब शादी से लगभग एक महीना पहले “शाहपट्टा” होता था और उसके बाद लड़की घर से बाहर नहीं निकल पाती थी। उसे घास काटने, पेड़ पर चढ़ने की मनाही होती थी। जंगल जाना तो बहुत दूर की बात थी दोस्तों घर की चौखट भी नहीं लांघ पाती थी। बंदिश बहुत रहती थी। उड़ान भरना संभव नहीं था। ऐसे में वह जवानी की दहलीज पर खड़ी प्रेमिका क्या करती।
प्रेमी – प्रेमिका कई महीने पहले मिले थे। हाथों में हाथ रखकर सौगंध खाई गई थी। एक दूसरे के नहीं हुए तो फिर जिंदा भी नहीं रहेंगे। आज की तरह के स्वप्निल सम्बंध नहीं थे। आज की तरह शादी की सालगिरह पर तलाक का संधि पत्र लिए न्यायालय की चौखट पर खड़े दम्पति जैसे किस्से नहीं थे।
उधर ससुराल पक्ष में हाहाकार मचा हुआ था। हर एक की जुबान पर दुल्हन के लिए कटु वचन थे। जहां शुभकामनाओं का दौर शुरू होने वाला था वहां सब के मुख से इस प्रकार के कटु शब्द निकल रहे थे जैसे आज चुनाव के समय विपक्षी नेताओं के लिए निकलते हैं।
भोजन तैयार था लेकिन उसमें सुगंध नहीं थी, मेहमान चहल कदमी कर रहे थे लेकिन सबके चेहरे लटके हुए थे मानो मातम मना रहे हों। दूल्हा बदहवास सा कभी इधर कभी उधर बेचैन घूम रहा था। गांव के लोग जितने मुंह उससे 4 गुना बातें कर रहे थे।
दूसरे दिन दूल्हा और गांव के कुछ बुजुर्ग दुल्हन के गांव पहुंचे लेकिन वहां का दृश्य बदला हुआ था। बात नहीं बननी थी तो नहीं बनी। दूल्हा और उसके साथ गए बुजुर्ग अपमानित होकर वापस आ गए। उन्हें डराया धमकाया भी गया था। दूल्हा अपने घर आया और घर से दौड़ पड़ा अनजान राह की ओर—-।
दौड़ते – दौड़ते जब दूर निकल गया तो घर के लोगों को चिंता हुई। दूल्हे के पिता ने भी दौड़ लगाई। दूर गांव के एक बुजुर्ग को आवाज लगाई, हमारे बालक को रोको रोको रोको— बच्चे को वापस लाया गया।
पंडित जी खाली हाथ मायूस होकर अपने घर चले गए। ढोल वादक मुंह लटकाए चले। रसोईया बड़बड़ाता हुआ निकला। पंडित जी ने दूल्हे की शादी कुछ दिन बाद अपने दूसरे गांव के एक यजमान की पुत्री से करा दी। आज वह दूल्हा बुजुर्ग हो गया है। उसका आज भरा – पूरा परिवार है। परंतु वह दुल्हन, वह दिन, वह दृश्य—– जब भी याद आता है वह आज भी बेचैन हो जाता है।