उत्तराखंडयूथसामाजिक

जगदीश ग्रामीण जी की कलम से

थानों

गांव से शहरों में आए लोग अपने पुराने खानपान, रीति – रिवाज, पर्व – त्यौहार, पहनावा, बोलचाल, भाषा, संस्कृति सब कुछ अपने साथ लेकर आते हैं। गांव में छूट जाते हैं तो बंजर खेत, खाली खलिहान, टूटे खंडहर मकान, उलख्यारी, गिंजाली, जन्द्रा आदि। यहां तक कि गांव का वह चूल्हा भी शहर में दिख जाता है जिस पर सर्दी के मौसम में आग तापी जाती है। आग तापने का सुख भी निराला ही है। रजाई, हीटर कोई भी इसका उचित विकल्प नहीं है। संस्कृत के किसी विद्वान ने कहा भी है कि गरीब व्यक्ति रात घुटनों के सहारे, दिन सूर्य के सहारे और सुबह-शाम अग्नि के सहारे बिताता है।
गांव से शहर की ओर आए लोग गाय पालते हैं तो जंगल में बहुत दूर- दूर जाकर घास की व्यवस्था करते हैं। आग तापने के लिए लकड़ी लाते हैं। हालांकि जंगलों पर घास और लकड़ी वाले लोगों का इतना दबाव रहता है जितना किसी नेता जी पर जनता से किए गए वादों को पूरा करने का रहता है। फिर भी जंगल नेताजी से अधिक हमारी उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास करते हैं और किसी को कभी निराश नहीं करते हैं। गांव से शहर में आकर मेहनत वाली आदतें कुछ कम हो जाती हैं लेकिन फिर भी व्यक्ति मेहनत करता है। शहरी क्षेत्रों में सुविधाएं भी हैं। पक्की सड़कें भी हैं। इसलिए स्कूटी ऐसा वाहन है जिसको महिला, पुरुष, छोटे बच्चे, लड़कियां सब बड़े प्रेम से निहारते हैं। उसका प्रयोग करते हैं। उसका उपयोग करते हैं। उससे लाभान्वित होते हैं।
शहरी क्षेत्रों में हम देखते हैं बहू, ससुर को स्कूटी में पीछे बैठा कर अस्पताल तक ले जाती है, बैंक से पेंशन निकालने के लिए ले जाती है, शादी विवाह में खट्टी – मीठी खिलाने भी ले जाती हैं। बड़ा अच्छा लगता है।
बहुएं जंगल से लकड़ी लाने के लिए, घास लाने के लिए स्कूटी का उपयोग कर रही हैं। कई स्थानों पर तो महिलाएं जंगल में घास काट देती है, लकड़ियां काट देती हैं, और उनके परिवार के पुरूष परिजन या अन्य परिजन स्कूटी लेकर घास लकड़ी लेने आ जाते हैं। घसियारी महिलाओं को बड़ी राहत इस स्कूटी से मिलती है।
गांव में पीठ पर, सिर पर जो बोझा ढोते ढोते कमर टेढ़ी हो जाती थी, सिर की चुभन सताती रहती थी, वह समाप्त हुई है। स्कूटी शहरी क्षेत्र की महिलाओं के लिए शान की सवारी है। वहीं उनके सुख – दु:ख की सहेली भी है। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। इसलिए शहरी क्षेत्र में सामान ढोने के लिए स्कूटी का उपयोग किया जा रहा है।
पहले सास – बहू में 36 का आंकड़ा रहता था। सास की सत्ता बड़ी राजतन्त्रात्मक थी। सास की सत्ता को चुनौती नहीं दी जा सकती थी। हालांकि बहू भी एक न एक दिन सास बनती थी और सास भी एक न एक दिन बहू ही थी। नई पढ़ी – लिखी बहू ने सास के साथ 36 के आंकड़े को आज 63 में बदल दिया है। बहू ने सास को मां और ससुर को जब से पिता – पिता पुकारना शुरू किया तो पाषाण हृदय ससुर का हृदय भी पिघल कर बहु को बेटी मान कर प्यार दुलार करने लगा। इसी प्रकार सास को जब बहू के मुख से मां शब्द सुनाई दिया तो उसका आंचल भी भीग गया, नैन सजल हो गए। और उसको बहू में बेटी दिखाई देने लगी। बस यहीं पर 36 का आंकड़ा 63 में बदल गया। देवर और जेठ को आधुनिक बहुओं ने भाई कहना शुरू किया तो यह रिश्ता भी सहोदर भाई बहन के समान हो सजीव हो उठा। शब्द बदले, अर्थ भी बदल गए। शोर के स्थान पर संगीत सुनाई देने लगा।
आधुनिकता की दौड़ में बहुत कुछ पीछे छूट रहा है। हम बहुत जल्दबाजी में हैं। इत्मीनान से बैठकर बहुत सारे मुद्दों पर बात की जानी चाहिए। यह आज के समय की जरूरत भी है।
कुछ तुम बदलो कुछ हम बदलेंगे आओ तो मिलकर दुनिया बदलेंगे

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