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नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार की चुनौतियां

हरिद्वार//देहरादून

विभिन्न राजनीतिक दल जब संगठित होते हैं तो उसमें विभिन्न विचारधाराओं और सिद्धांतों वाले दलों का एक गठबंधन बनता है ऐसे गठबंधन युक्त राजनीतिक दल राष्ट्र के बजाय अपने हित साधने वाली नीतियों पर सरकार पर दबाव बनाने की मांग करते हैं। राष्ट्रहित के बजाय स्वहित साधने वाली नीतियों पर जब गठबंधित दल मांग करते हैं तो सरकार देशहित में स्पष्ट नीति निर्धारित नहीं कर पाती और जिसका प्रभाव सरकार के लोकहित के कार्यों पर पड़ता है। गठबंधन युक्त सरकार में स्थिरता की भी कमी बनी रहती है। प्रायः पिछले गठबंधन की राजनीति में देखा जाता है कि छोटे दल गठबंधन सरकार पर अपने हितों की पूर्ति के लिए दबाव बनाते रहते हैं।…..

देश में एक बार फिर से अट्ठारवीं लोकसभा में केंद्रीय स्तर पर एक बार फिर बैशाखी युक्त गठबंधन सरकार की शुरुआत हो गई है। चुनाव में जब कोई भी पार्टी पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं कर पाती तो गठबंधन के माध्यम से सरकार बनाना एक मजबूरी बन जाती है। भाजपा के नेतृत्व में एक फिर से नरेंद्र मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की बैशाखियों के सहारे गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने जा रहे हैं।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग की गठबंधित सरकार में टीडीपी के मुखिया चंद्रबाबू नायडू और जदयू प्रमुख तथा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। मोदी को इस दौरान लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले अपने अन्य सहयोगी दलों के साथ समन्वय बनाए रखना होगा। ऐसे में देखना होगा कि उनके नेतृत्व में नई सरकार किस प्रकार के शासन माडल को अपनाती है। भाजपा की योजना प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाकर पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने और सभी प्रकार के चुनाव एक साथ कराने की थी। गठबंधन सरकार होने के नाते यह देखना रोचक होगा कि भाजपा टीडीपी और जदयू की बैशाखियों के बिना देश में समान नागरिक संहिता लागू करने,सभी प्रकार के चुनाव एक साथ कराने जैसे महत्वपूर्ण एजेंडों पर कैसे आगे बढ़ती है?

अगर देखा जाए तो देश में गठबंधन राजनीति का प्रारंभ सन् 1967 से प्रारम्भ हुआ। तब से जातिवाद और क्षेत्रवाद के उदय के साथ भारत में गठबंधन आधारित राजनीति में काफी परिवर्तन आया है। गठबंधन सरकार का देश की व्यवस्था पर सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों प्रकार के प्रभावों को देखा गया है। अगर गठबंधन राजनीति का सकारात्मक पहलू को देखें तो गठबंधन सरकार में एक दल की मंत्रिपरिषद के बजाय कई दलों को मिलाकर मंत्रिपरिषद का गठन होता है। जब कई दलों के सदस्यों को मंत्रिपरिषद में शामिल किया जाता है तो इससे अधिक योग्य लोगों की टीम बनती है। इससे सभी दलों के वरिष्ठ और योग्य सदस्यों की योग्यता का लाभ देश की सरकार चलाने में मिलता है।

गठबंधन में शामिल दलों की संख्या जितनी अधिक होती है, सरकार को उतना ही अधिक जन समर्थन प्राप्त होता है। इससे सरकार की स्वीकार्यता भी बढ़ती है। गठबंधन की राजनीति से अतिवादी दृष्टिकोण से भी बचा जा सकता है। एक दल की सरकार जनता पर अपने दृष्टिकोण को थोपने का प्रयास कर सकती है, जबकि गठबंधन में कोई भी दल अकेले अपनी नीतियां और सिद्धांत थोप नहीं सकता, क्योंकि अन्य दल विरोध कर सकते हैं। गठबंधन राजनीति का एक लाभ यह भी है कि एक राजनीतिक दल अकेले सत्तारूढ़ दल का उतना प्रभावशाली प्रतिरोध नहीं कर सकता, जितना कई दलों का गठबंधन कर सकता है। जैसे जब संप्रग की सरकार थी, तब राजग गठबंधन ने प्रभावशाली ढंग से उसका प्रतिरोध किया।
वर्तमान में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में टीडीपी और जदयू की बैशाखियों के सहारे राजग की सरकार बनने जा रही है। अट्ठारवीं लोकसभा में सशक्त विपक्ष इंडिया गठबंधन उसकी मनमानी को प्रभावी ढंग से रोक सकता है। गठबंधन सरकार के मंत्रिपरिषद को प्रायः एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के अनुसार काम करना होता है। वह मनमाने तरीके से कार्य नहीं कर सकती। प्रधानमंत्री को भी कोई फैसला लेते समय गठबंधन के सभी दलों की नीतियों और सिद्धांतों का ध्यान रखना पड़ता है। यह ठीक है कि गठबंधन सरकार में विभिन्न पार्टियां मिलकर सरकार चलाती हैं और हर फैसले से पहले सबकी राय ली जाती है, ताकि किसी एक पार्टी का वर्चस्व न हो, लेकिन अक्सर में ऐसा होता नहीं है। गठबंधन सरकार में जब मंत्रालयों का बंटवारा होता है, तो अधिक सीटों वाली पार्टी महत्वपूर्ण मंत्रालयों की मांग करती है। सत्ता की मजबूरी में बड़ी पार्टी इसे स्वीकार भी लेती है।

गठबंधन में विभिन्न विचारधाराओं और सिद्धांतों वाले दल शामिल होते हैं, जो कई बार राष्ट्र के बजाय अपने हित साधने वाली नीतियां बनाने की मांग करते हैं। इससे सरकार स्पष्ट नीति निर्धारित नहीं कर पाती और इसका प्रभाव उसके कार्यों पर पड़ता है। गठबंधन सरकार में स्थिरता की भी कमी होती है। देखा जाता है कि छोटे दल गठबंधन सरकार पर अपने हितों की पूर्ति के लिए दबाव बनाते रहते हैं। क्षेत्रीय दल अक्सर राष्ट्रीय हितों के बजाय क्षेत्रीय हितों को प्राथमिकता देते हैं, जिससे देश के हितों को हानि पहुंचती है। प्रधानमंत्री को अक्सर सहयोगी दलों के दबाव में काम करना पड़ता है। कई बार तो उन्हें विदेशी समझौतों और संधियों में भी उनकी सलाह भी लेनी पड़ती है। इससे वैश्विक मामलों में देश की स्थिति कमजोर हो जाती है।
प्रायः गठबंधन सरकारों में देखा जाता है,सरकार में विभिन्न दलों के मंत्री सरकार के साझा कार्यक्रम के बजाय अपने दल के नेतृत्व के निर्देशों का पालन करते हैं, जिस कारण कई अवसरों पर प्रधानमंत्री अनिर्णय की स्थिति में रहते हैं। गठबंधन शासन में सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और विभागों में समन्वय की भी कमी देखी जाती है। गठबंधन छोटे राजनीतिक दलों के उदय को भी प्रोत्साहित करता है, जो स्थायी सरकारों के गठन में एक बाधा भी है। कुल मिलाकर अट्ठारवीं लोकसभा में गठबंधन सरकार का संचालन देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए एक चुनौती होगी। इसके साथ ही राष्ट्रहित की अपेक्षा क्षेत्रीय हितों के मध्य नजर चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार के साथ काम करना भी एक बड़ी चुनौती होगी। पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय हितों के मध्य नजर बिहार में भाजपा जदयू गठबंधन टूट गया था। चंद्रबाबू नायडू को आंध्र प्रदेश और नितीश को बिहार का हित देखना है समय-समय पर ये दोनों नेता अपनी बातें मनवाने में सक्षम हैं, जिससे मोदी को दबाव की राजनीति का सामना करना पड़ सकता है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की राजनीतिक प्रगति इसी पर निर्भर करेगी कि वे इस दबाव के बीच कैसे आगे बढ़ते हैं। नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल की सफलता ही गठबंधन धर्म निभाने पर निर्भर करेगी।
कमल किशोर डुकलान “सरल”
रुड़की, हरिद्वार (उत्तराखंड)

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