रुड़की//हरिद्वार//(उत्तराखंड)
भारतीय इतिहास में हमारी पाठ्य पुस्तकों में विदेशी आक्रांताओं की अतिरंजित विवेचना की गई है और भारतीयों के साहस संघर्ष एवं प्रतिरोध को अपेक्षाकृत कम महत्व दिया गया है। देश के वैशिष्ट्य एवं गौरवशाली अध्यायों की अपेक्षा केवल दिल्ली-केंद्रित इतिहास को केंद्र में रखा गया है तथा देश के अमर सपूतों बलिदानी धर्मरक्षकों महान संतों समन्वयवादी समाज-सुधारकों क्रांतिकारियों स्वतंत्रता सेनानियों को नेपथ्य में रख दो-चार का महिमामंडन किया गया है!….
देश ने जिस तरह से यूं कहां जाएं तो विज्ञान,अंतरिक्ष के क्षेत्र में पिछले 10 वर्षों में उल्लेखनीय प्रगति की है,परंतु शिक्षा का क्षेत्र कमोबेश उपेक्षित ही रहा। राजग की तीसरी सरकार में भी धर्मेन्द्र प्रधान एक बार फिर से देश के शिक्षा मंत्री बनें हैं। राजग की तीसरी सरकार में शिक्षा मंत्री बनते ही धर्मेंद्र प्रधान ने कहा है कि वह देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को तेजी से लागू करेंगे। इससे यही लगता है कि देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू होने में अभी तक तेजी नहीं दिखाई दी। जिस तरह से देशभर में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का खूब प्रचार-प्रसार हुआ,परंतु राष्ट्रीय शिक्षा नीति का धरातल पर क्रियान्वयन, प्रभाव और परिणाम शून्य के बराबर है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का विषय देश की भावी पीढ़ी के भविष्य और निर्माण से जुड़ा विषय है जो समाज और सरकार की प्राथमिकता-सूची में निचले पायेदान पर दिखता है। राजनीतिक दलों के लिए जब सत्ता-प्राप्ति का सीमित और तात्कालिक लक्ष्य सत्ता पाना सर्वोपरि हो जाता है, तब विचारों के गठन और व्यक्ति-निर्माण का प्रश्न कोशों पीछे छूट जाता है।
निःसंदेह मोदी सरकार ने अपने पिछले दस वर्षों के कार्यकाल में कांग्रेस नीत सरकारों की तुलना में जिस तरह से अधिक आइआइटी,आइआइएम,मेडिकल कालेज एवं केंद्रीय विश्वविद्यालय खोले हैं, अपेक्षाकृत स्कूल, कालेजों और विश्वविद्यालयों की शिक्षा की स्थिति,शिक्षण का स्तर,पाठ्यक्रम की गुणवत्ता,विश्व में उसकी साख एवं विश्वसनीयता,मौलिक शोध एवं नवोन्मेष,कौशल एवं तकनीक की दक्षता,अध्यापकों का प्रशिक्षण,नियमित सत्र,अनुशासित शैक्षिक परिवेश,रोजगारपरक शिक्षा, पारदर्शी एवं कदाचारमुक्त परीक्षा तथा भारी धन खर्च कर भी विदेशी विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने की बढ़ती लालसा आदि पर समाधानपरक काम नहीं किया जाना चाहिए? उम्मीद थी कि पिछले दस वर्षों में पूर्ण बहुमत वाली सरकार में पाठ्यक्रम में सुधार की दृष्टि से निर्णायक पहल की जाएगी, परन्तु पाठ्यक्रम सुधार की दृष्टि से इस दिशा में अभी तक केवल खानापूर्ति ही साबित हुई है। क्या बुनियाद बदलने की शर्त पर केवल साज-सज्जा से काम चलाया जा सकता है? आवश्यकता संशोधन-संक्षिप्तीकरण की नहीं,अपितु राष्ट्र की आकांक्षा के अनुरूप पाठ्यक्रम में आमूलचूल परिवर्तन का प्रश्न है।
नि:संदेह भाषा, साहित्य, इतिहास, राजनीतिशास्त्र और दर्शन जैसे मानविकी के विभिन्न विषयों के माध्यम से सांस्कृतिक एकता और अखंडता को मजबूती मिलनी चाहिए। इसी तरह भारतीय ज्ञान-परंपरा को भी पोषण मिलना चाहिए,अस्तित्ववादी विमर्श एवं विभाजनकारी प्रवृत्तियों पर विराम लगना चाहिए। सहयोग, संतुलन, सामाजिकता, संवेदनशीलता एवं देशभक्ति जैसे मूल्यों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। भारतीय संस्कृति में व्याप्त बहुलता, शांति एवं सह-अस्तित्व के मूल स्रोत की पहचान की जानी चाहिए।
भारतवर्ष में बौद्धिक-राजनीतिक-अकादमिक विमर्श में ‘ व्याप्त विविधता में एकता’ का उल्लेख तो भरपूर मात्रा में किया जाता है,परंतु उसे पोषण देने वाले मूल्यों, मान्यताओं,परंपराओं,प्रमुख घटकों,मंदिरों,मठों,तीर्थों और त्योहारों आदि की कोई विवेचना नहीं होती? क्या उपरि लिखित विवेचनाओं को पाठ्यक्रम यथोचित स्थान नहीं मिलना चाहिए? इतिहास की हमारी पाठ्यपुस्तकों में विदेशी आक्रांताओं की अतिरंजित विवेचना की गई है और भारतीयों के साहस,संघर्ष एवं प्रतिरोध को अपेक्षाकृत कम महत्व दिया गया है। देश के वैशिष्ट्य एवं गौरवशाली अध्यायों की अपेक्षा केवल दिल्ली-केंद्रित इतिहास को केंद्र में रखा गया है तथा देश के अमर सपूतों, बलिदानी धर्मरक्षकों, महान संतों, समन्वयवादी समाज-सुधारकों, क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों को नेपथ्य में रखकर केवल दो-चार का ही महिमा मंडन किया गया है!
भारतीय शिक्षा-व्यवस्था और पाठ्य-सामग्रियों में आस्था एवं विश्वास पर हमेशा से ही संदेह,अनास्था एवं अविश्वास को वरीयता दी गई है? जिसमें कि अधिकार भाव की प्रबलता और कर्तव्य-भावना गौण है। वर्गीय चेतना के नाम पर अलगाववादी वृत्तियों तथा पारस्परिक मतभेद एवं संघर्ष को शिक्षा के माध्यम से बढ़ाया गया है। मूल बनाम बाहरी, उत्तर बनाम दक्षिण,राष्ट्रभाषा बनाम क्षेत्रीय भाषा जैसी कृत्रिम लड़ाइयां शिक्षा,साहित्य,कला एवं संस्कृति के माध्यम से खड़ी की गई हैं। परिवार,समाज एवं राष्ट्र की विभिन्न इकाइयों को परस्पर विरोधी मानने वाली खंडित एवं विभेदकारी दृष्टि के स्थान पर भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में समन्वय और समग्रता पर आधारित सनातन दृष्टि को स्थान मिलना चाहिए।
नई शिक्षा नीति में स्वतंत्र भारत की अनेक गौरवशाली उपलब्धियां पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए जाने की बाट जोह रही हैं। क्या भारत की सफल लोकतांत्रिक यात्रा के क्रमिक सोपानों का उल्लेख पाठ्यक्रम में नहीं होना चाहिए? क्या आपातकाल के दौरान किए गए संघर्ष और यातनाओं की व्यथा-कथा पढ़कर लोकतंत्र के प्रति भावी पीढ़ी की आस्था मजबूत नहीं होगी? क्या चंद्रयान, मंगलयान की सफलता की गाथा नहीं पढ़ाई जानी चाहिए? दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रयोग,अनुसंधान और व्यवहार की कसौटी पर कसे जाने वाले गणित और विज्ञान जैसे विषयों में भी बीते कई दशकों से परिवर्तन नहीं किए गए हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अध्ययन-अध्यापन की भाषा के रूप में मातृभाषा एवं भारतीय भाषाओं की पैरवी की गई है, परंतु अभी तक इस दिशा में अपेक्षित काम नहीं हुआ है। विभिन्न स्तरों की परीक्षा-पद्धति,प्रश्नपत्र के प्रारूप, मूल्यांकन की प्रक्रिया आदि में सुधार आवश्यक हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक होने की समस्या निरन्तर विकराल होती जा रही है। अभी नीट परीक्षा प्रश्नपत्र लीक का मामला सुर्खियों में है। नीट परीक्षा का प्रश्नपत्र लीक यह दर्शाता है कि शिक्षा के साथ परीक्षा व्यवस्था में अपेक्षाकृत जरूरी सुधार नहीं हुए हैं। यह समय की मांग है कि मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में शिक्षा-क्षेत्र में सुधारों को गति एवं दिशा मिले तथा पाठ्यक्रम में अविलंब व्यापक परिवर्तन हो।
-रुड़की,हरिद्वार (उत्तराखंड)