उत्तराखंड//हरिद्वार//रुड़की
!!मन रुपी बकरे पर ब्राह्मण रुपी आत्मा का अंकुश होना जरूरी।। (एक शिक्षाप्रद लघु दृष्टांत) : कमल किशोर डुकलान ‘सरल’
लोक व्यवहार में अगर हम धन या पद प्रतिष्ठा के कारण किसी को अपने से छोटा या बड़ा देख रहे हैं तो निश्चित रूप में हम उसे अपनी आन्तरिक
नजदीकियों से दूर कर रहे हैं। आजकल लोक व्यवहार में धन पद प्रतिष्ठा के कारण समाज में हो भी ऐसा ही रहा है।…..
एक समय की बात है कि,किसी राजा के पास एक बकरा हुआ करता था। राजा ने एक बार अपने राज्य में ऐसा एलान किया कि जो कोई इस बकरे को जंगल में चराकर तृप्त करेगा मैं उसे अपना राज्य का आधा राज्य दे दूंगा। किंतु बकरे का पेट पूरा भरा है या नहीं इसकी परीक्षा मैं राजसभा में खुद करूँगा। इस ऐसी घोषणा को सुनकर एक ब्राह्मण राजा के पास आकर कहने लगा कि बकरा चराना कोई बड़ी बात नहीं है। मैं इस बा
बकरे की भूख पूर्ण करूंगा।
ब्राह्मण बकरे को जंगल में ले गया और सारे दिन उसे घास चराता रहा,, शाम तक ब्राह्मण बकरे को खूब घास खिलाता रहा और फिर यह सोचकर कि बकरे ने सारे दिन इतनी घास खाई है। अब तो इसका पेट भर ही गया होगा अब मैं इसको राजमहल में लेकर राजा के पास जाता हूं,बकरे की भूख तृप्तता के लिए राजा ने थोड़ी सी हरी घास बकरे के सामने रखी तो बकरा उस हरी घास को भी खाने लगा। राजमहल के एक बाद एक अनेकों लोगों बकरे की भूख मिटाने के प्रयत्न के अनेकों किये,किंतु ज्यों ही दरबार में उसके सामने घास डाली जाती तो वह फिर से उसे भी खाने लगता।
राजमहल के किसी दूसरे विद्वान् ब्राह्मण ने सोचा कि राजा द्वारा ऐसा एलान किया जाना जरुर कोई तो रहस्य तत्व है,,मैं जरा युक्ति से काम करता हूं,,विद्वान ब्राह्मण उस बकरे को घास चुगाने के बहाने पुनः जंगल ले गया। जब भी बकरा घास खाने के लिए जाता तो विद्वान ब्राह्मण उसे लकड़ी से मारता,,सारे दिन में ऐसा अनेकों बार हुआ,,अंत में बकरे ने सोचा की यदि मैं घास खाने का प्रयत्न करूँगा तो मार तो खानी ही पड़ेगी।
शाम को जब विद्वान ब्राह्मण बकरे को लेकर राजदरबार में राजा के पास लेकर लौटा तो विद्वान ब्राह्मण ने राजा से कहा कि मैंने बकरे को दिनभर भरपेट घास खिलाया है।अत: यह अब बिलकुल घास नहीं खायेगा,,लो कर लीजिये परीक्षा….
राजा ने घास डाली लेकिन उस बकरे ने उसे खाया तो क्या? देखा और सूंघा तक नहीं….बकरे के मन में यह बात बैठ गयी थी कि अगर
घास खाऊंगा तो मार पड़ेगी….अत: राजदरबार में बकरे ने घास नहीं खाई….
कहानी में बकरा मनुष्य रुपी मन है और बकरे को घास चराने वाला ब्राह्मण उसकी आत्मा” है। राजमहल में दरबारियों की परीक्षा लेने वाला राजा “परमात्मा” का साक्षात स्वरूप है। मन रुपी बकरे को मारो नहीं उस पर अंकुश रखो… मन सुधरेगा तो जीवन सुधरेगा। जीवन सुधारने के लिए विवेक रुपी लकड़ी से मन पर अंकुश रखना पड़ेगा…अर्थो पार्जन हो या उच्च पद हर किसी की तुलना एक दूसरे से करना सम्भव नहीं है ।
अतः मन को विवेक रूपी लकड़ी से रोज पीटो..परन्तु घर पर सबके लिए रोटी का साईज़ लगभग एक जैसा ही होता है…. सम्पूर्ण निष्कर्षों में अगर हम कहानी का सार यही है कि हम लोक जीवन,लोक व्यवहार,पद प्रतिष्ठा के हिसाब से हर किसी को अपने से छोटा देख रहे हैं जिस कारण से हम अपनी आन्तरिक नजदीकियों से उसे या तो दूर से देख रहे हैं या फिर अपने गुरुर से देख रहे हैं।