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सांकेतिक भाषा दिवस: संवाद का नया आयाम

उत्तराखंड(अंकित तिवारी)- सांकेतिक भाषा दिवस हर साल 23 सितंबर को दुनिया भर में बधिर समुदाय की भाषा और संस्कृति को मान्यता देने और उनके अधिकारों की रक्षा करने के उद्देश्य से मनाया जाता है। इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाने की शुरुआत 2018 में हुई, जब संयुक्त राष्ट्र ने बधिर लोगों की सांस्कृतिक और भाषाई पहचान की सुरक्षा और सम्मान के महत्व को उजागर किया। सांकेतिक भाषा, जिसे दृष्टिगत-संकेतों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है, न केवल एक संवाद का माध्यम है, बल्कि यह बधिर समुदाय के व्यक्तियों के आत्मसम्मान और उनकी पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

सांकेतिक भाषा का महत्व

दुनिया भर में लगभग 70 मिलियन बधिर लोग रहते हैं, जिनमें से अधिकांश विकासशील देशों में रहते हैं। ये लोग 300 से अधिक सांकेतिक भाषाओं का उपयोग करते हैं, जो हर देश और समाज में सांस्कृतिक और भाषाई विविधता को दर्शाती हैं। भारतीय संदर्भ में, भारतीय सांकेतिक भाषा (आईएसएल) हमारे बधिर समुदाय की प्रमुख भाषा है। यह भाषा बधिर और सुनने वाले व्यक्तियों के बीच पुल का काम करती है और उनके संवाद के साधन के रूप में कार्य करती है। यह न केवल एक भाषा है, बल्कि एक ऐसे समाज का प्रतीक है जो हर नागरिक को उसकी आवश्यकता के अनुसार शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाएं प्रदान करता है।

इतिहास और महत्व

सांकेतिक भाषा दिवस का चयन विश्व बधिर संघ (WFD) की स्थापना के दिन, 23 सितंबर 1951, को मनाने के उद्देश्य से किया गया था। यह दिन हमें याद दिलाता है कि हमें हर किसी की भाषा और संस्कृति का सम्मान करना चाहिए, चाहे वह कितनी भी अलग क्यों न हो। सांकेतिक भाषाओं को संरक्षित करना और उन्हें बढ़ावा देना आवश्यक है, क्योंकि यह हमारे समाज की समावेशिता और विविधता का परिचायक है।

चुनौतियाँ और समाधान

हालांकि सांकेतिक भाषा को कुछ देशों में मान्यता मिली है, लेकिन अभी भी इसका प्रसार और स्वीकार्यता संपूर्ण विश्व में समान रूप से नहीं है। कई विकासशील देशों में सांकेतिक भाषा की शिक्षा और सेवाओं की कमी है, जिससे बधिर लोगों को समान अवसर नहीं मिल पाते। इसके समाधान के लिए वैश्विक स्तर पर नीतिगत समर्थन, शिक्षा की पहुंच और सांकेतिक भाषा के प्रति सामाजिक जागरूकता को बढ़ावा देना बेहद जरूरी है।

भारत में भी हमें सांकेतिक भाषा को स्कूलों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए ताकि समाज के हर वर्ग को इसके महत्व का बोध हो सके। साथ ही, भारतीय सांकेतिक भाषा (आईएसएल) को अधिक से अधिक सरकारी और निजी सेवाओं में लागू किया जाना चाहिए, ताकि बधिर व्यक्तियों को उनकी जरूरतों के हिसाब से मदद मिल सके।

समावेशी समाज की ओर कदम

सांकेतिक भाषा दिवस न केवल बधिर समुदाय के लिए है, बल्कि यह एक अवसर है हम सभी के लिए यह सोचने का कि किस प्रकार हम समाज में भाषा, संचार और संस्कृति के स्तर पर अधिक समावेशी बन सकते हैं। सांकेतिक भाषा को मान्यता देना और उसका प्रसार करना हमारे समाज की जिम्मेदारी है।

यह दिवस हमें याद दिलाता है कि भाषा केवल शब्दों का खेल नहीं है; यह समाज के हर व्यक्ति को जोड़ने का माध्यम है। जब हम सांकेतिक भाषा को मान्यता देंगे, तब हम बधिर व्यक्तियों को समाज में समान स्थान और अवसर प्रदान करेंगे, जिससे एक समावेशी और अधिक संवेदनशील समाज का निर्माण होगा।

इस सांकेतिक भाषा दिवस, आइए हम सब मिलकर संकल्प लें कि हम बधिर समुदाय के अधिकारों का सम्मान करेंगे और उनकी भाषा को समृद्ध और संरक्षित करने की दिशा में कार्य करेंगे। क्योंकि सच्ची समानता वहीं है, जहाँ हर व्यक्ति की आवाज़ सुनी जा सके – चाहे वह शब्दों में हो या संकेतों में।

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