लेखक (अंकित तिवारी): हर शहर की अपनी भाषा और व्यवहार की विशेषताएँ होती हैं, जो न केवल उसकी संस्कृति को दर्शाती हैं बल्कि वहां के लोगों के स्वभाव को भी उजागर करती हैं। अगर लखनऊ की बात की जाए, तो यह शहर तहज़ीब और नज़ाकत के लिए प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि लखनऊ में लोग गुस्से में भी अपनी तहज़ीब नहीं छोड़ते। “आप” का प्रयोग और क्रियाओं में “-इए” का आदर सूचक प्रयोग आम है। यहाँ तक कि थप्पड़ मारने से पहले भी इस अंदाज़ में बात की जाती है जैसे कोई प्रेम की बात हो रही हो—“म्यां बस कीजिए, कहीं ऐसा न हो आपके गुलाब जैसे गालों पर हम अपनी हथेली चस्पा कर दें।”
लखनऊ के विपरीत, पटना में भले ही इतनी नज़ाकत न हो, लेकिन औपचारिक और अनौपचारिक भाषा का भेद वहाँ स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। बड़ों से मिलने पर प्रणाम कहना आम है और यह दिल्ली या पंजाब में बोले जाने वाली “नमस्ते” से अधिक शिष्ट माना जाता है। वहाँ का एक उदाहरण है जब एक यातायात सिपाही को नियम तोड़ने वाले चालक से कहते सुना गया, “गाड़ी किनारे लगाइए।” इस प्रकार की भाषा दिल्ली की सड़कों पर दुर्लभ होती है, जहाँ ऐसी औपचारिकता की अपेक्षा नहीं की जाती।
दिल्ली का स्वभाव, दरअसल, “आप” से थोड़ा दूर दिखता है। वहाँ अगर “आप” का प्रयोग होता भी है, तो कुछ इस अंदाज में कि शिष्टता का अभाव झलकता है—“मुन्ना, आपका मास्टर आया है,” या “पिता जी, आप चलो, खाना खा लो।” यहाँ का आम बोलचाल वाला अंदाज़ क्रियाओं के आदरार्थक रूप, जैसे “-इए”, को लगभग नकारता है।
मेरठ के बारे में भी कुछ ऐसा ही है। एक प्राध्यापक ने बताया कि उन्होंने जब अपनी कक्षा में छात्रों से पूछा, “आप लोग समझ गए?” तो उन्हें उत्तर मिला, “तू बोले जा मास्टर जी, म्हारी फिकर मती ना कर।” मेरठ में भाषा के आदर और अनौपचारिकता के बीच का यह अंतर भी स्पष्ट है।
इन विभिन्न शहरों की भाषाओं से एक बात स्पष्ट होती है—भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं है, यह उस समाज के स्वभाव, संस्कृति और आचरण का आईना भी होती है। लखनऊ का सम्मानपूर्ण संबोधन, पटना की औपचारिकता, दिल्ली की बेफिक्री, और मेरठ का अपनापन—सभी एक विशेष पहचान बनाते हैं, जो हर शहर के लोगों को अलग-अलग ढंग से परिभाषित करती है।
इस लेख के लेखक अंकित तिवारी हिंदी शोधार्थी हैं।