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संपादकीय: महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध और हमारी जिम्मेदारी

केवल कानून बनाना और अपराधियों को सजा देना ही समाधान नहीं है; इसके लिए हमें अपने सोच और व्यवहार में भी बदलाव लाना होगा। एक स्वस्थ समाज तब बन सकता है जब हम महिलाओं के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलें और उन्हें उनके अधिकार और सुरक्षा प्रदान करें

उत्तराखंड//देहरादून//डोईवाला
(अंकित तिवारी)

हमारे समाज में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध एक गंभीर चिंता का विषय बन चुके हैं। “विदा लाडो” जैसे भावुक शब्द और चिरैया के प्रति शर्मिंदगी का भाव हमें सोचने पर मजबूर करता है कि कहीं हम एक महत्वपूर्ण सामाजिक जिम्मेदारी को अनदेखा तो नहीं कर रहे हैं। यह सच है कि समय और परिस्थितियां हमें कभी भी सामने नहीं लातीं, लेकिन यह भी सच है कि हमारी जिम्मेदारी है कि हम उन दर्दनाक आवाज़ों को सुन सकें और उन्हें अनसुना न करें।

“मैं जीना चाहती हूँ माँ” जैसे अभिव्यक्तियाँ हमें यह एहसास कराती हैं कि एक महिला का दर्द और उसकी इच्छाएँ सिर्फ उसके व्यक्तिगत नहीं, बल्कि हमारे समाज की भी जिम्मेदारी हैं। जब किसी महिला की चीखें हमारी नींदों को परेशान करती हैं, तो यह एक संकेत है कि समाज में कुछ गलत है और हमें इसे सही करने की आवश्यकता है।

हमारे समाज में अपराधों की बढ़ती संख्या और उनके प्रति हमारी असंवेदनशीलता एक गंभीर समस्या है। केवल कानून बनाना और अपराधियों को सजा देना ही समाधान नहीं है; इसके लिए हमें अपने सोच और व्यवहार में भी बदलाव लाना होगा। एक स्वस्थ समाज तब बन सकता है जब हम महिलाओं के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलें और उन्हें उनके अधिकार और सुरक्षा प्रदान करें।

समाज के सभी वर्गों को, विशेष रूप से पुरुषों को, इस दिशा में आगे आकर जिम्मेदारी लेनी होगी। यह जरूरी है कि हम पुरुषों को यह सिखाएं कि “पुरुष” होने का मतलब सिर्फ ताकतवर होना नहीं है, बल्कि एक संवेदनशील और इंसानियत से भरा होना भी है।

हमें इस बात की पहल करनी होगी कि अपराधों को जड़ से समाप्त करने के लिए समाज में एक व्यापक परिवर्तन आए। महिलाएँ हमारी समाज की महत्वपूर्ण अंग हैं और उनके अधिकारों की सुरक्षा हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है। केवल तभी हम एक सच्चे और न्यायपूर्ण समाज की ओर बढ़ सकते हैं।

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