पितृ-पक्ष समाप्ति की ओर है। हिन्दू धर्म में अपने पूर्वजों का श्राद्ध उनकी तिथि के अनुसार किया जाता है। जिनकी तिथि ज्ञात नहीं होती उनका आखिरी श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध में ब्राह्मण जिमाने के अलावा गाय, कौआ, कुत्ते, चींटी को भी भोग लगाया जाता है। पिछले कुछ सालों से देखा जा रहा है कि कौए कम नजर आने लगे हैं। खासतौर पर शहरों में तो नहीं के बराबर हैं। शहरों में सीमेंट-कंक्रीट के जंगलों ने उनके आशियाने खत्म कर दिए हैं। जिसके कारण वे विलुप्त होते जा रहे हैं। पहाड़ों में भी विकास के नाम पर पहाड़ उजाड़े जा रहे हैं। जंगलों का अंधाधुंध कटान किया जा रहा है। कुछ प्राकृतिक आपदाओं तो कुछ जलवायु परिवर्तन के कारण काल के मुंह में समा रहे हैं। जिसके चलते उनकी संख्या घट रही है। कहीं ऐसा न हो कि आने वाले समय में कौए विलुप्त ही हो जाएं। पितृ- पक्ष में तो कौए को काफी महत्व माना गया है। मान्यता है कि कौए को यमराज का वरदान है। कौए को भोग लगाने से पितर तृप्त होते हैं और उनकी आत्मा को शांति मिलती है। उनका आशीर्वाद बना रहता है। वैसे भी भोर होते ही घरों की मुंडेर पर बैठकर जब कांव-कांव करता था तो कहा जाता था आज घर में कोई मेहमान आने वाला है। दूसरी तरफ कुत्ते को भैरव की सवारी माना जाता है। जिनकी संख्या हर जगह दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। पितृ-पक्ष में इनको भोग लगाना जरूरी माना जाता है। लेकिन ज्यादातर लोग कुत्तों को बेवजह दुतकारते- मारते रहते हैं। जबकि कुत्ते वफादार होते हैं। गाय को भी श्राद्धों में भोग लगाना होता है। गाय में तो सभी देवी-देवताओं का वास होता है। गाय की सेवा से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
मगर आज गौमाता और गौवंश की जो दुर्दशा देखने को मिलती है उससे दिल दुखी होता है। वही गाय अन्य दिनों दरवाजे पर आकर खड़ी भी हो जाए तो उसे भगा दिया जाता है। तो फिर हम यह ढकोसला क्यों करते हैं? यह विषमता क्यों? सच्चाई तो यह है कि हमने केवल अपने स्वार्थ तक सिमटकर रहने की अपनी नियति बना ली है। तरह-तरह के प्रपंच रचकर हम अपने आप को समाज के बीच महान एवं धार्मिक प्रवृत्ति का होने का दिखावा करते हैं।