उत्तराखंड//हरिद्वार//रुड़की
देशभर में भोजन व्यवसाय से जुड़े व्यवसायियों से उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश सरकार ने नाम पट्टिका अंकित करने का आदेश जारी किया है। राज्य सरकारों द्वारा होटल व्यवसायियों से नाम पट्टिका अंकित करवाने के पीछे तीन पहलू सामने आए हैं। पहला-यह उपभोक्ताओं के जानने के अधिकार से जुड़ा है। दूसरा-कानून-व्यवस्था को बनाए रखना राज्य का दायित्व है कानून व्यवस्था भंग न हो, उसकी जिम्मेदारी पूर्णतया शासन-प्रशासन की रहती है। तीसरा-यह किसी भी व्यवसाय से सम्बंधित व्यक्ति का नाम जानना यह कोई नई व्यवस्था नहीं है,जो कि पहले से स्थापित कानून-व्यवस्था के अनुरूप है। परंतु उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा श्रावण मास में चलने वाली कांवड़ यात्रा के मध्य नजर होटल व्यवसायियों से सम्बन्धित नाम पट्टिका अंकित करवाने के आदेश को राजनीति से प्रेरित बहस ने इसे ‘हिंदू-मुसलमान’ बना दिया। यह दिलचस्प है कि इस निर्णय का मुखर विरोध करने वाला राजनीतिक वर्ग पिछले लोकसभा चुनाव में बार-बार यह प्रचार कर रहा था कि सत्तासीन होने पर घर-घर जाकर लोगों से नाम के साथ उनकी जाति भी पूछेगा एक प्रकार से जातिवादी जनगणना की बात कर रहा था।
हमारा भारत देश विभिन्न मतावलंबियों वाला देश है। इस देश में सभी मतावलंबियों को अपने मत के अनुसार पूजा पद्धति एवं अपनी आस्था के अनुरूप भोजन चुनने का अधिकार है। मुस्लिम समाज के ईद या फिर मुहर्रम के पर्व पर उनकी मजहबी आस्था का सम्मान करते हुए यातायात परिचालन तक में अस्थायी तौर पर उचित परिवर्तन किए जाते हैं। सनातन हिंदू समाज में कांवड़ यात्रा कई किलोमीटर चलने वाली, एक कठिन तीर्थयात्रा है। कुछ कांवड़िए ‘डाक कांवड़’ भी लाते हैं। इसमें गंगाजल से भरे कांवड़ को बिना जमीन पर रखे भगवान शिव की मूर्ति या शिवलिंग को अर्पित करने और ‘सात्विक भोजन’ ग्रहण करने की मान्यता है। करोड़ों हिंदू पवित्र दिनों में तामसिक खाद्य वस्तुओं,जैसे प्याज-लहसुन आदि के साथ साधारण नमक तक का सेवन नहीं करते हैं। इतना ही नहीं, इतना ही नहीं बासंतीय अथवा शारदीय नवरात्र के पवित्र दिनों में यदि कोई गैर-मजहबी कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है, तब चाहे नवरात्र के व्रत रखने वाले सीमित हों,उनके खाने-पीने के लिए अलग से विशेष व्यवस्था की जाती है। जिस दिशानिर्देश पर विवाद हुआ, उसमें कहीं भी यह नहीं लिखा था कि कोई गैर-हिंदू कांवड़ यात्रा के मार्गों पर अपनी दुकान-ढाबा-ठेला आदि (मांस विक्रेताओं को छोड़कर) नहीं लगा सकता। इस आदेश के अनुसार, प्रत्येक दुकानदार-ढाबा संचालक, चाहे वह किसी भी मजहब का हो,उसे अपने वास्तविक नाम की पट्टी लगानी थी। इस शासनादेश की एक पृष्ठभूमि भी है।
राष्ट्रीय राजमार्गों पर कई गैर-हिंदू अपनी वास्तविक पहचान छिपाकर हिन्दू देवी-देवताओं के नामों पर खाद्य-पेय दुकानों,ढाबों का संचालन करते हैं। आखिर अपनी असली पहचान छिपाने और गलत पहचान बताने के पीछे क्या मंशा हो सकती है? यहां बात केवल उपभोक्ता को धोखा देने तक सीमित नहीं है। इस छल के खुलने पर तीर्थयात्रियों की आस्था पर कुठाराघात की बात उठने पर छोटी-सी घटना भी दंगे का रूप ले सकती है। इस आशंका को निरस्त करने तथा कानून-व्यवस्था और सांप्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने हेतु दुकानों-ढाबों आदि पर नामपट्टिका लगाने का आदेश बताया गया था।
उपभोक्ताओं के अधिकार की रक्षा करने हेतु देश में वर्ष 2005 से जारी ‘जागो ग्राहक जागो’ रूपी केंद्रीय उपभोक्ता जागरूकता कार्यक्रम के तहत विनियमन कानून बना है। वर्ष 2006 में पारित ‘खाद्य सुरक्षा मानक अधिनियम’ और वर्ष 2011 में लागू ‘खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण’ से उपभोक्ताओं के जानने के अधिकार की रक्षा की जा रही है। इन कानूनों के अनुसार, खाद्य परिसरों में सभी प्रतिष्ठानों को लाइसेंस/पंजीकरण संख्या प्रदर्शित करना अनिवार्य है, जिसमें धारक के नाम का भी उल्लेख होता ही है। रेलवे स्टेशनों पर पंजीकृत विक्रेता और टैक्सी-ऑटो के मालिक-चालक अपना विवरण प्रदर्शित करते हैं। अधिकतर ऑनलाइन एप में भोजन-दवा-राशन आदि वस्तुओं का वितरण करने वालों का नाम उपभोक्ताओं को दिखता है।
देशभर खी शीर्ष अदालतों ने भी उपभोक्ताओं के अधिकारों से जुड़े कानूनों की देश भर में अनुपालना पर बल दिया है। श्रावण मास में जब राज्य सरकारों द्वारा नामपट्टिका अंकित करवाने का मामला सामने आया, तब मेरे समक्ष शिवभक्ति में ‘सात्विक भोजन’ की पवित्रता का विचार आ रहा है। सनातन परंपरा में ‘सात्विक’ की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है और ‘सात्विक भोजन’ करने वाले हिंदुओं की संख्या बहुत कम है। ऐसा कहने वाले या तो भारतीय संस्कृति को नहीं समझते या पूर्वाग्रह के शिकार हैं। मूलतः सनातन संस्कृति में एकरूपता के बजाय समरसता का दर्शन है। एकेश्वरवादी मजहबों के प्रतिकूल इसमें ‘सह-अस्तित्व’ की भावना है। प्रत्येक सनातनी को अपने देवी-देवता को चुनने, उनकी आराधना करने और उनसे आध्यात्मिक पूर्ति करने की स्वीकृति है। अपने बहुलतावादी चिंतन के अनुरूप सनातन में ‘सात्विक भोजन’ को परिभाषित करने हेतु कोई संकीर्ण इकाई नहीं है। यह एक सनातनी पर निर्भर करता है कि उसके लिए ‘सात्विक’ क्या है। मेरा मत है कि देश में यदि एक भी हिंदू, मुस्लिम या यहूदी अपनी मजहबी आस्था के अनुरूप भोजन करना चाहता है, तो उसकी पूर्ति करने का दायित्व हमारी सांविधानिक-शासकीय व्यवस्था के साथ सभ्य समाज का भी है। कौन-सा खाद्य उत्पाद मुसलमानों की मजहबी मान्यताओं के अनुरूप है, उसे निर्धारित करने के लिए वर्षों से निजी संस्थाओं द्वारा ‘हलाल’ प्रमाणपत्र जारी हो रहे हैं। इसी तरह, अन्य आस्थाओं के अनुरूप भोजन आवश्यकतानुसार उपलब्ध होते हैं। वैसे ही कांवड़ियों के ‘भोजन चुनने के अधिकार’ को लिया जाना चाहिए। उसे सांप्रदायिक विवाद का मुद्दा बनाने का कोई औचित्य नहीं है।