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विश्व गौरैया दिवस विशेष: कहाँ गई गौरैया? – विलुप्ति के कगार पर प्रकृति की प्यारी मेहमान

उत्तराखंड(अंकित तिवारी): गौरैया, जो कभी हमारे घर-आंगन, चौक-चबूतरे और पेड़ों पर चहचहाती थी, अब दुर्लभ होती जा रही है। प्रसिद्ध बाल साहित्यकार प्रो० परशुराम शुक्ल की कविता “कहाँ गई गौरैया?” एक मासूम बच्चे के सवाल के माध्यम से इस गंभीर समस्या की ओर संकेत करती है। कविता में बच्ची अपनी दादी से पूछती है कि वो प्यारी गौरैया, जो कभी बरसातों में फुदकती थी और घरों के भीतर नीड़ बनाती थी, अब कहाँ चली गई?

गौरैया का घटता अस्तित्व:
पिछले कुछ दशकों में गौरैया की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इसके पीछे कई कारण हैं—बढ़ता शहरीकरण, मोबाइल टावरों से निकलने वाले विकिरण, रासायनिक कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग, और आधुनिक कंक्रीट के घर, जिनमें गौरैया के लिए घोंसला बनाने की जगह नहीं बची। गाँवों से लेकर शहरों तक, गौरैया अब एक याद बनती जा रही है।

पर्यावरणीय असंतुलन का संकेत:
गौरैया की अनुपस्थिति केवल एक पक्षी की विलुप्ति भर नहीं है, बल्कि यह पर्यावरणीय असंतुलन का संकेत भी है। गौरैया हमारे खेतों और बागों में प्राकृतिक कीट नियंत्रण का एक अहम हिस्सा थी। यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो जैव विविधता पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।

गौरैया को बचाने की पहल:
अब समय आ गया है कि हम गौरैया को वापस बुलाने के लिए ठोस कदम उठाएँ। इसके लिए हमें अपने घरों में उनके लिए सुरक्षित स्थान बनाने होंगे, परंपरागत मिट्टी के बर्तनों या लकड़ी के छोटे-छोटे घोंसले लगाने होंगे, और अपने बगीचों में ऐसे पेड़-पौधे लगाने होंगे जो उन्हें आकर्षित कर सकें। साथ ही, कीटनाशकों और मोबाइल टावरों के रेडिएशन को नियंत्रित करने की दिशा में भी कार्य करना होगा।

आख़िर में:
प्रो० परशुराम शुक्ल की यह कविता केवल एक बाल कविता नहीं, बल्कि एक चेतावनी भी है। यह हमें याद दिलाती है कि यदि हमने अभी ध्यान नहीं दिया, तो आने वाली पीढ़ियाँ गौरैया को केवल किताबों में ही देख पाएँगी। इसलिए, हमें यह संकल्प लेना होगा कि हम इस नन्हे पंछी को फिर से अपने आँगन में लौटने का अवसर देंगे। सवाल वही है—”कहाँ गई गौरैया?” और इसका उत्तर हमारे प्रयासों में छिपा है।

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